क्या दलित चेतना में भी सुलग रहा है गाय का सवाल !


यूँ तो ये तस्वीर ग्रामीण भारत की एक आम तस्वीर हैं लेकिन इस तस्वीर के साथ लालजी निर्मल लिखते हैं कि जालौन के मरगांव का यह दलित युवक एक मृत बछिया को डिस्पोज करने जा रहा है ।इसे ले जाने के एवज में इसे आधा किलो अनाज मिला है ।अपने मुल्क भारत मे एक और भारत बसता है दलित भारत| इसमें, डिस्पोज करना, पारिश्रमिक या सामुदायिक चित्ति में गड़बड़ी कहाँ है और ठीक क्या करना है उसका इलाज तो जैसा देश वैसा भेस की तर्ज पर हो सकेगा, लेकिन बीते दशकों और दो सौ सालों में जो तस्वीर सामने आ रही है उसमें बहुत कुछ और जोड़कर देखे जाने की जरुरत है, गाँव हो या देश चित्र की समग्रता और चित्ति की समग्रता दोनों के बगैर हल नहीं होने वाला| खांचे बना के शिक्षित-उपेक्षित का भेद करके जो तस्वीरें आज आ रही हैं,  ऐसा नहीं है कि ये तस्वीर लालजी निर्मल  निकले हैं तभी सामने आ रही हैं, इस तस्वीर की बयानी देख के बरबस ही दलित शोषण का एक फ़िल्मी चित्र  सामने आ जाता है, वर्ग विशेष के साथ विशेष संवेदना सामान्य बात है, दलित शोषित वंचित पीड़ित बता के अवाम की सहानुभूति तो हासिल हो ही जाती है| भले ही तस्वीर के पीछे बुंदेलखंड के आर्थिक पिछड़ेपन का आधुनिक इतिहास हो, गरीबी और बदहाली में भले ही पूरे बुन्देलखण्ड की दुर्दशा कमोबेश एक जैसी है, साह्वेस के धर्मेन्द्र कुमार सिंह के संस्थान ने नगर निगम के साथ मिलकर एक सर्वेक्षण किया, सर्वेक्षण कूड़ा बीनने वालों जिन्हें अंग्रेजी में रैग पिकर्स कहते हैं, की बदहाली को लेकर किया गया| सर्वेक्षण में मेरे लिए अचम्भे की बात थी कि कानपुर नगर के रैग पिकर्स में सबसे बड़ा समुदाय बुन्देलखण्ड का एक खास दलित वर्ग, कहाँ है, कैसा है, कितना है, इस आंकड़ेबाजी में रूचि लेने वाले इस विषय में धर्मेन्द्र कुमार सिंह या नगर निगम से जानकारी ले सकते हैं| कई साल पहले इसी तरह का एक सर्वेक्षण परिवर्तन के कैप्टेन एस.सी त्रिपाठी ने भी किया था| उस सर्वेक्षण के नतीजे कमोबेश यही थे| इन कवायदों में सरकारी और असरकारी तमाम लोग साझीदार रहे किन्तु शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा हो जिसने अपनी सहानुभूति न व्यक्त की हो| आजकल बताया जा रहा है कि कूड़ा बीनने वालों के उद्धार के लिए लिए सरकार गंभीर है| सरकार चाहती है कि कुछ ऐसा हो ताकि कूड़ा उठाने वाले इज्जत से कूड़ा बीन सकें, ये वाह वाह का चिंतन है या आह आह का चिंतन, समझ नहीं आता कि कैसे रियेक्ट किया जाये| कूड़े की स्थिति और आर्थिक गुणा भाग में कुछ प्रयोग हुए भी लेकिन इज्जत से कूड़ा बीनना शायद ही किसी का सपना हो| लालजी निर्मल की उपरोक्त तस्वीर तो हर गाँव में साल छः महीने में ही दिखती है, रोज नहीं| लेकिन शहरों में महिला-पुरुषों को कूड़ा उठाते देखना एक आम बात है, रोजाना देख सकते हैं| इस अमानवीय रोजगार के लिए शामिल लोगों की बदहाली और इज्जतदार जिंदगी के दावे आजकल संविदा बन गए हैं, जिसमे काम वही लेकिन सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा शामिल नहीं| इन समुदायों के उद्धार के लिए दलित विचारकों का क्या निष्कर्ष है यह विडम्बना कैसे दूर होगी यह दूर की कौड़ी है| इसी कवायद में अपनी चिंता भावना लिए तमाम सरकारी और असरकारी   घाटों के मठ-महंत और चिन्तक विचारकों से  मिलना हुआ, उनकी गाय को लेकर फ़िलहाल की जो अनबन है वैसा देखने को नहीं मिला| उन सबका एक साधारण निष्कर्ष है कि जिस तरह गंगा की बात माली, मल्लाह, डोम सरीखे समुदायों के बगैर करना बेईमानी ही साबित होगी| नीति बनाने वाले, पेपर लिखने वाले या फैसला लेने वाले रुपये की बंदरबांट करने वाले विद्वान उस समुदाय से नहीं होते इसलिए वो समुदाय हाशिये से बाहर रह जाते हैं|  जनकल्याण योजनाओं में ज्यादातर नजदीकी लोगों को ही हिस्सेदारी मिलती है, बिलकुल मनमानी घरजानी की तर्ज पर, किसके नजदीकी और ऐसे नजदीकी ये बात जगजाहिर है| इसीलिए  अनुसूचित जाति, जनजाति आयोगों की शुरुआत हुई ताकि कानून बना कर समाधान निकला जा सके| इन आयोगों को मजबूत करने की जरुरत है| वह  गाँव से जुड़ा रहा हूँ इसलिए मानता हूँ कि गाँव और जातीय समीकरण दोनों की हालत कडवी सच्चाई जैसी है| बुन्देलखण्ड की हालत कडवी भर की नहीं वहां की हालत  नीम पर चढ़े करेले  जैसी है जहाँ  तमाम आर्थिक पैकेज के बावजूद हालत जस की तस बनी है| न तो परिवेश, प्रकृति और जलवायु का साथ है और न ही पानी की भरपूर उपलब्धता|  ये  बुनियादी बातें हैं, इनको दरकिनार करके विकास और बेहतरी तो दूर रोटी कपडा मकान की जरुरतें तक पूरी नहीं होने वाली|  लेकिन फिर भी गाँव की अपनी सरकार होती है, और असली विकास तो धरती का ही बच्चा होता है| अवाम के बीच काम, मेहनत, पारितोषिक का बंटवारा भले ही जैसा तस्वीर की बयानी दिख रहा हो वही हो लेकिन इसका मौलिक सर्वेक्षण और निराकरण तो ग्राम के स्तर पर ही संभव होगा| स्थानीय स्तर पर निदान निराकरण नहीं होने के चलते देश की बहुत बड़ी आबादी खानाबदोश हो चली है, लेकिन ये सब आपसी बातचीत से और  समझदारी से हो तो बेहतर होगा| शहर में भी उनके लिए रेड कारपेट बिछा नहीं मिलने वाला| गाँव में जो कुछ भी है उसकी बेहतरी और विकास की समझ और भावना आपसी बातचीत से बनेगी, लोकतंत्र के समाधान निदान बातचीत से ही निकलते हैं| भले ही सत्यनारायण त्रिपाठी कहते रहें कि हम लोगो के क्षेत्र मे यह काम मोचियो ने मुर्दे का बाल बनाना नाइयो आदि ने बन्द कर दियाहै कुछ लोग करते है वे मुहमाॅगी कीमत लेते है ?  लेकिन उनकी सुनता कौन है, वजह साफ़ है आजकल जो दिखता है वही बिकता है का दौर है, जावेद हबीब और वंदना लूथरा की देखा-देखी लड़के लड़कियाँ नाई और ब्यूटिशियन का कोर्स कर रहे हैं शहरी जिंदगी में ये आन्दोलन है| रोज प्रचार आता है, रोज सामाजिक विकास होता है| लेकिन ग्रामीण भारत बहुत उपेक्षित है कामकाज रोजगार के बदले इन तस्वीरों से भी लोग दर्शन-चिंतन ईजाद कर रहे हैंउद्योग और रोजगार में आम लोग  ही आपसदारी से काम करके एकदूसरे का जीवन सरल करते हैं, यही लोकतंत्र है जिसे लिख पढ़ के तैयार किया गया| ऐसे में जरुरत तो इस बात की है कि समाज में एक आदमी दूसरे की पीड़ा देख के कुछ सहयोग सहारा दे सके| लेकिन आज के दौर में ये हिम्मत हौसले की बात है, कोई कर गुजरेगा तभी सबको सबक मिलेगा| जो अदबदा के या सब कुछ जानबूझकर खेल में लगे हुए हैं ऐसे  लोगों ने कानपुर में पराग बंद करवा दी| लेकिन कंपनियां "नमस्ते इण्डिया" का रुख अपना रही है| सरकार ने इसी मकसद से कामधेनु योजना भी शुरू करवाई गई थी, सरकार दो करोड़ तक लोन दे रही थी| अगर कुछ लोग रोजगार शुरू करते तो डिस्पोजल का काम भी कोई न कोई तो करता ही| कोई नहीं करता तो जो गाय पलता उसे ही गौभक्ति दिखा के डिस्पोजल करना पड़ता| लेकिन इन तस्वीरों के पीछे कोई यह कह दे कि गाय का डिस्पोजल गौभक्तों के हवाले कर दिया जाए तो यह ज्यादती होगी| ऐसे बयानों से जाहिर होता है कि वर्ग विशेष के लोग गौभक्तों से कोई खास लोड लिए बैठे हैं, क्यों लोड लिए बैठे हैं इसकी अपनी कहानियां होंगी| लेकिन जहाँ की कहानी है किरदार तो वहीँ के जंचते हैं, चमनगंज में लगभग दो हजार घोसी दूध का कारोबार करते हैं, घोसी मुसलमान भी होते हैं और हिन्दू भी| अब अगर लोग गाय-भैंस, भेड़ बकरी मवेशियों और उनके पालने वालों से बैर है मानकर बैठ जाएँ तो क्या हासिल मिलेगा? मेरी समझ से तो ऐसे लोगों के लिए साधारण सुझाव यही है कि वे कुछ छोटा मोटा कारोबार कर लें, सरकार की बहुत सारी स्कीमों का फायदा उठाएं, किसी दिन तहसील, कचहरी, विकास भवन जाएँ, योजनायें देखें समझें और सरकार- कानून से कदमताल करें, ताकि जड़मति न हों और पूर्वाग्रहों से मुक्ति पायें| 

कुछ रोजगार होगा तो चर्चा बढ़िया होगी...व्यस्त रहेंगे मस्त रहेंगे, रोजगार नहीं होगा तो चर्चा जारी रखना मुश्किल होगा...
 यही हालत है हमारे गाँव की, शहर की, दिन की दोपहर की| 
जिस देश की दो तिहाई आबादी बेरोजगार हो| 
दिन की बजाए रात में काम करने की मजबूरी हो, 
लेबर कानून में शोषण बेशुमार हो| 
जहाँ जन्म और कर्म अलग अलग करके आबादी को बरगलाने में सदियाँ गुजरी हों, 
उद्योग का बंटाधार हो, 
वहां कानूनी कारोबार में जातीयता खोजना क्या अन्याय न होगा| 
क्या भूख का, बेगारी का, मजबूरी का लाचारी का राजनीतिक खेल उचित है? 
क्या बेरोजगारी को जातीय चश्मे से देखना बाकी आबादी की बेरोजगारी, भुखमरी और लाचारी के साथ अन्याय न होगा| 
जहाँ दिन-दोपहरी-रात का होश न हो, जहाँ कल, आज और कल की समझ का अकाल हो, जहाँ इतिहास के मामले में कुर्मी समाज पटेल के आगे नहीं जा पा रहे, मौर्य साम्राज्य और अशोक महान के इतिहास से आबादी अनजान हो, जहाँ सुहैल देव पासी का इतिहास सिर्फ भड़काने की नीयत से पढाया जाए| जहाँ नौकरशाही को जमीनी हकीकत रास नहीं आती हो   भूत भविष्य और वर्तमान में, लेखन में बयान में लिजलिजापन हो| जहाँ चमड़े की जुबान की तरह कलमबंद कानून भी लागू होने के साथ साथ बदलने के हालात हों, जहाँ सरकार को जुमले में गुजार के पूरे देश को गुजरात बनाने की कवायद जारी हो, जहाँ इतिहास भूगोल और नागरिकशास्त्र की बुनियादी समझ का अकाल हो और आज का, कल का, अंदाजा न हो वहां आप सदियों सालों की बात करते हैं| ये सब सैद्धांतिक बातें हैं, कितनी सच हैं और कितनी झूठ इसका विवेचन करने की बजाए गरीबी, भुखमरी, लाचारी पर नजर डालें जो कि फिलहाल यानि आज की मौलिक जरुरत है, इज्जत की रोटी- रोजगार की तरह|

जो गाय गोरु जमीनी के कारोबार में लगे हैं, जिनका परंपरागत कारोबार गाय से जुड़ा है उन्हें धेनु विज्ञानं पढना चाहिए| धेनु विज्ञानं ग्रामीण जीवन का कॉमन सेंस है| यही दुनिया के विकास का भविष्य है, गाय के ऊपर खेती की सीधी निर्भरता है, जिनके पास ट्रेक्टर, और यूरिया खरीदने के पैसे नहीं उनके लिए भी अपनी मेहनत से जीने-खाने का इन्तेजाम एक आध बछिया और एक जोड़ी बैलों से हो सकता है| तमाम भूमिहीनों के सामने मेहनत और बटाईदारी के मामले भी मौजूद हैं जिनकी नजीर से एक फसली यानि कॉर्पोरेट खेती ईजाद हुई| इस अकाट्य सत्य के बावजूद गावों में जानवर पालने की कमी हो रही है और शहरी क्षेत्रों में दुग्ध व्यवसाय की कंपनियों पर निर्भरता बढ़ रही है| मेरे देखते-देखते शहरों में दूध के दाम पांच गुने से ज्यादा बढ़ गए| क्या शहरी आबादी की आय बढ़ी, दो हजार, चार हजार, पांच हजार से दस हजार तक के बीच में शहर की पच्चीस लाख आबादी जीती है| स्थिर आय के बेच उस आबादी ने अपनी खर्चे में कटौती करके जिन्दगी जीना अपना सच बना लिया| क्या नीति निर्माताओं को ये भी बताना पड़ेगा कि शहरी आबादी की सबसे पहली कटौती दूध की ही होती है, बिना दूध के पलने वाले बच्चे की दैहिक दशा और मानसिक हालत क्या है, कुपोषण दूर करने के लिए स्कूलों में मिड डे मील से भैंस पालने तक के फैसले इन्हीं दीगर हालातों में लिए गए| जीवन और जीवन स्तर क्या है कैसा है जिनका ये आकलन विवेचन किताबी हो उन्हें कुछ दिन अवाम के बीच बिताने की जरूरत है| गाँधी और अम्बेडकर को इसी रास्ते बदलाव की इबारत पढने को मिल सके| नए लड़कों और नौकरशाहों को भी जाकर देखते रहना चाहिए सारा किस्सा समझ में आ जायेगा कि कैसे पाव भर तेल से हफ्ते भर का राशन खाने लायक बनता है, और शहरी मजदूर की बाकी जिंदगी इसी तथ्य के इर्द गिर्द रोटी कपड़ा मकान की कवायद में खर्च हो जाती है| लेकिन गाय और गाँव की कसरत कवायद में थोड़ी फुरसत होती है जहाँ खेल खिलाडी वाला कारोबार होता है, बुंदेलखंड की ही एक और तस्वीर दिखाते हुए अपना दल के आर. बी. सिंह पटेल ने साझा की है जिसमे वो बताते हैं कि
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यह बुंदेलखंड का दृश्य है, अन्ना प्रथा(अन्ना जानवर)किसी के खेत मे जाकर फसल चौपट करने का अधिकार बीजेपी के समर्थक गोरक्षा समितियों ने इन जानवरों को दे रखा है, भक्तो बोलो बुंदेलखंड ही नही अपितु पूरे भारत का किसान कैसे जिंदा रहेगा, सरकारे इस पर सिर्फ बयान बाजी ही करती है। गौ रक्षा समितियों के पास सैकड़ों की तादात में अन्ना जानवर है| अन्ना जानवर कहा जाता है आवारा पशुओं को| उदहारण के लिए जब कोई गाय दूध देना बंद कर देती है तो उसको छुट्टा छोड़ दिया जाता है| इन पशुओं को बहुत बड़ी तादात इधर-उधर घूमती है, गाँव में किसी के भी खेत में चरती है| खड़ी फसल बर्बाद करती है| जाहिर है इस हालत में झगड़े-फसाद भी आम बात है| यही हाल पूर्वी उत्तर प्रदेश का है जहाँ आवारा पशुओं की भरमार है लेकिन वहां समितियां नहीं| जाहिर है कि गाँव के किसान के सामने एक तरफ जाति-धर्म के पचड़े हैं तो दूसरी तरफ रोजगार और आमदनी का संकट| ऐसे में साझेदारी की संस्कृति का जो बुरा हाल होना था उसके नतीजे सामने हैं| कोआपरेटिव सोसाइटियां नजर आती हैं जो खुद में राजनीति और कानूनी दांवपेंच की शिकार हैं| आज से चालीस साल पहले जो काम कोआपरेटिव सोसाइटी से होता था अब वह प्राइवेट कंपनियां कर रही है और मालामाल हो रही हैं| गुजरात की एक कंपनी अमूल के तर्ज पर उत्तर प्रदेश की एक कंपनी ने कारोबार शुरू किया| बताते हैं कि कंपनी ने शहर के बाहरी दायरे में मौजूद प्रोसेसिंग प्लांट के इर्द गिर्द सैकड़ों गौशालाएं खुलवायीं जिनसे दूध खरीदना कंपनी के रोजानामचे का कारोबार है| इसी की बदौलत चार-पांच सालों के कारोबार में आज कंपनी पांच हजार करोड़ से ऊपर के टर्नओवर के साथ आगे बढ़ रही है| पॉलिटिक्स का दर्जा अपनी जगह है और समाज का दर्जा अपनी जगह| एक कोआपरेटिव सरकार ने भी शुरू की थी| वो कोआपरेटिव भी लोकल किसानों से दूध लेकर शहरी आबादी को दूध सप्लाई करती थी| कंपनी के सामने आज वो सरकारी कोआपरेटिव धराशायी हो चुकी है, सुना जा रहा है कि शायद अमूल ने उस कोआपरेटिव के कारोबार को खरीदने में दिलचस्पी दिखाई है, और सरकार वैश्विक खिलाडियों के लिए बाज़ार बनाकर एफडीआई लाने की कवायद में लगी है| आज बात तो इसकी होनी चाहिए कि देश के सरकारी कब्जे में पड़ी खंडित सम्पदा में स्थानीय लोगों की भागीदारी कैसे हो| ये स्टार्ट अप इंडिया का दौर है, क्या ग्राम प्रधान स्टार्ट अप इंडिया को लेकर गाँव के ही लोगों की साझीदारी से कुछ प्रयास नहीं कर सकते? इसी तरह के सवालों के बीच अखिलेश सरकार ने कामधेनु योजना को एक फ्लैगशिप प्रोजेक्ट बनाया, लेकिन पिछले तीन साल की कवायद का एक सच तो ये भी है कि कामधेनु योजना में बांटे गये कर्ज के वापस निकलने की गुंजाइश न के बराबर है| मनमानी घरजानी तरीके से या सरकारी योजना में मनमाफिक बांटा गया कर्ज वापस नहीं हो पाता है तो व्यवस्था बदहाली की शुरुआत होती है, वहां तो योग्यतम का चुनाव करके प्रोत्साहित करने की जरुरत है| लेकिन रो-रो फेरी या वाटरवे के प्रोजेक्ट्स में मल्लाहों की सुनी जाए, तैराकी में मल्लाहों की चले मैंने तो ऐसा सुना नहीं, अंग्रेजी हुकूमत टेनरी भले ही आज बारह हजार करोड़ की हो गयी हो लेकिन आज के स्टार्ट अप कहाँ पहुँच पाएंगे ये वक्त बताएगा| कानपुर में जब ए2जेड कंपनी आई थी तब तत्कालीन नगर आयुक्त ने सफाई कर्मियों की भर्तियाँ बंद करवा दीं, भर्तियाँ आज तक नहीं हो सकीं, सब कुछ संविदा पर चल रहा है| व्यवस्था के हिसाब से देखें तो एक नजीर ये भी मिलती है कि आठ सौ पार्कों के लिए सवा सौ माली हैं| अनिल सिन्दूर बुन्देलखण्ड में पानी और बेईमानी दोनों को का असर गहराई से जानते हैं, उन्होंने अवाम के साथ अपने भावनात्मक रिश्ते को जिया भी है, अपने लेखन चिंतन में वो अक्सर बयान करते हैं कि कूड़े की सरकारी कवायद से अवाम को क्या हासिल हुआ और रोजगार में क्या सुरक्षा हासिल हो सकी| लेकिन इन सब कवायदों में चार से पांच हजार करोड़ रुपये तो खर्च हुए ही| जाहिर है कि सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट के लाखों करोड़ ले पाना किसी घुरहू, निरहू या चैतू के बच्चों के लिए तो आसन नहीं, या शायद वे योजनाएं भी अवाम को शामिल करके नहीं बन सकीं| जहाँ सरकारी फैसले में अवाम शामिल न हो सके वह काम भ्रष्टाचार के दलदल पनपने जैसा होता है जिसमे डूबने के तमाम उदहारण हैं| ट्रेक्टर का लोन लेने वाली आबादी के साथ क्या हुआ, विकास के जो सपने देख कर जिसने कर्ज लेकर ट्रेक्टर ख़रीदा उनमे बहुत बड़ी आबादी को अपनी जमीनें बेच कर ट्रेक्टर की किश्तें चुकानी पड़ीं| ऐसा नहीं है कि ट्रेक्टर से काम आसान नहीं हुआ, काम तो आसान हुआ लेकिन डीजल, बिजली, सोलर, वाले विकास के चलते किसान के लिए कमा के किश्तें चुका पाना दुश्वार हो गया| छोटी जोत वाले किसान हल बैल बेचकर ट्रेक्टर पर निर्भर हो गए| अपनी मेहनत से अनाज उगलती जमीन दूसरे की मेहेरबानी की मोहताज हो गयी| यहाँ फसलों के लिए यूरिया खाद की मारामारी भी गौरतलब है| डीजल, बिजली, कर्जे, सोलर और खाद की कीमत के सामने कमाई का अनुपात कितना बढ़ा क्या कभी ये आकलन भी किया गया? सच तो ये है कि ग्रामीण भारत में पशुधन की दुर्बलता के चलते ये हालात नुमाया हो रहे हैं| लेकिन यहाँ दिक्कत गाय, गाँव, रोजगार, बिजली, खाद पानी की नहीं, यहाँ समस्या है लोगों के सोच के खंडित होने का है| ग्रेट गेम इंडिया के संपादक शेली कसली कहते हैं, इसकी वजह साफ़ है, भारत में आज का नीति निर्माता वर्ग अम्बेडकर के रास्ते पर है, अम्बेडकर को शहरी आबादी, शहरी रहन सहन और कानून विधान की समझ तो रही लेकिन ग्रामीण आबादी के प्रति उनका नजरिया साफ़ नहीं हो पाया| जब उन्होंने ग्रामीण आबादी के लिए अंग्रेजी विधान की वकालत की तो उन्हें ग्रामीण पृष्ठभूमि के सभी नेताओं ने बहुत फटकारा भी| उसके बाद बलवंत राय मेहता और पंचायती राज व्यवस्था के पुनर्गठन की जरुरत महसूस की गई| समिति बनी, समिति ने देश भर में पंचायती राज व्यवस्थ पर अध्ययन अनुसन्धान किया और अपनी अनुशंसा प्रस्तुत की जिसे जनता सरकार ने समीक्षा करते हुए कुछ बदलाव भी किये| लेकिन अम्बेडकर के समय में शुरू हुई ग्रामीण व्यवस्था में सुधार की वह कवायद राजीव गाँधी के समय में परवान चढ़ सकी| उसका भी एक स्याह पक्ष ये रहा कि हुकूमत में जिन प्रावधानों में हमारे देश का निजाम मुकम्मल हुआ उन कानूनों में ग्रामीण आबादी के लिए अधिकार न्यूनतम ही रहे| ग्रामीण आबादी की सरकार का बंदोबस्त करने के लिए हमारी संसदीय सरकार को दिल्ली में बैठ के संविधान संशोधन अधिनियम पारित करना पड़ा जिसके बाद गाँव की पंचायतों के लिए अधिकार स्थापित किये जा सके| फिलहाल की सरकारी कवायदों में स्थानीय आबादी के कानूनी बंदोबस्त में 73 वां संविधान संशोधन अधिनियम ग्रामीण स्वराज का तो 74वां संविधान संशोधन विधेयक नगर स्वराज की बुनियादी परिधि बनाता है| इन्ही कानूनों में ग्राम पंचायतों को व्यवस्था और बजट में हिस्सेदारी दी गयी है| लेकिन ये सब कानून के सैद्धांतिक पक्ष है, व्यावहारिक रूप से ये देश नारों और नेताओं से चलता रहा है| एक नारा ईजाद हुआ था जहाँ कहीं भी लोकतंत्र है शिक्षा उसका मूलमंत्र है| फिलहाल शिक्षा की जो दुर्गति है उसकी हालत देखें तो ये नारा एक शताब्दी से कम का काम नहीं लगता| स्थानीय स्तर पर जमीन अवाम-किसान, कारोबारी गिरोहों और सरकार के रिश्तों का एक दूसरा उदहारण हमारे सामने है गन्ने की खेती और गन्ना मिलों का| गन्ने की खेती के लिए सरकार ने बेशुमार प्रोत्साहन और प्रचार कराया| लोगों को सब्सिडी देने से लेकर गाँव गाँव धर्मकांटा खुलवाने की कवायद के नतीजे में चीनी का कारोबार फल फूल रहा है, शराब की फक्ट्रियां महक रही हैं, अनुमानित तौर पर सात हजार करोड़ का बजट चीनी मीलों को गन्ना खरीद के लिय कर्ज दिया गया| किसानों की दुर्दशा का सबब गन्ने की खरीद भर ही नहीं| गन्ने की खरीद के दाम भी बीते बीस सालों में तीन गुना बढ़े| असली मामला कास्ट ऑफ़ लिविंग से जुड़ा है, सारा संकट जीवन स्तर और महंगाई से ही है| आज दूध के दाम पांच गुना बढे, चीनी के दाम चार गुना हो गए वहीँ पर गन्ना और सामान्य फसलों के उत्पादक किसानों की कमाई इस महंगाई के अनुपात में नहीं बढ़ी| पानी, बिजली, सड़क, शौचालय सफाई का शहरी मॉडल गाँव में नहीं हो सकता ऐसी बात नहीं है| असली दिक्कत इस बात की है कि ग्रामीण आबादी के विकास के खाके में रोजगार और आय के साधनों को कैसे शामिल किया जाए| आज सभी सरकारें सिर्फ पैसा देकर विकास योजनाओं के पर्चे बाँटती दिखाई देती हैं, असल की फसल से कोसों दूर| हर काम देने की नीति को दृष्टिगत करके कोई बुनियादी समाधान नहीं मुहैया करवा पा रही हैं| कामधेनु योजना से कुछ आशा जगी थी लेकिन वह योजना भी जातीय विद्वेष, और सामाजिक पूर्वाग्रहों की भेंट चढ़ गयी| कुछ लोगों ने इसको क्लास और कास्ट टैबू से भी जोड़ा लेकिन  आज बात तो इसकी होनी चाहिए कि देश के सरकारी कब्जे में पड़ी खंडित सम्पदा में स्थानीय लोगों की भागीदारी हो| क्या ग्राम प्रधान अपने गाँव के युवकों को धेनु विज्ञानं और डेरी की तकनीकों से सुसज्जित करके कुछ प्रयोग नहीं कर सकते? क्या वे बायोगैस प्लांट लगाकर गाँव के हर घर को खाद, बिजली, गैस नहीं मुहैया करवा सकते? सच तो ये है कि आभासी दुनिया में चाहे कोई कागज या तकनीकी जानकारी का रूपया बना ले लेकिन व्यावहारिक तौर पर पेड़ लगाने और फल उगाने का जो सपना आज़ादी के दीवानों ने देखा था, वो सपना आज किसी की आँखों में नहीं| यह देश बायो गैस का अविष्कारक है, दुनिया को गाय भैंस और जानवर के गोबर से धुंआ रहित चूल्हा बनाना सिखाने वाले भारत की नौकरशाही ने इस कदर अपनी आँखों पर पट्टी बाँधी कि कोई कुछ देखने को तैयार नहीं| भारत देश से सीख के यूरोपीय यूनियन के बीस से ज्यादा देशों ने बायो गैस से आगे बढ़ कर गैस ग्रिड तक बनाने तक पहुँच गए| बिजली के पच्चीस प्रतिशत का उत्पादन गोबर गैस प्लांट पर करने की ठानी है ताकि प्रदुषण के साथ साथ सस्ती बिजली और गैस मिल सके, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री जी उज्ज्वला योजना के नाम पर सब्सिडी वाला सिलेन्डर ही पसंद करते हैं महंगाई बढती है तो गैस कंपनियों पर निर्भरता बढती है, ऐसे में सस्ती गैस और सस्ती बिजली के लिए, सक्षम संपन्न गांवों के लिए किसी को फिक्र नहीं|  दुनिया कहाँ से कहाँ पहुंची जा रही है लेकिन हमारे रहनुमा, नीतिकार, विद्वान खुली आँखों से बस अपने मतलब भर का सच देखना चाहते हैं और उनमे से अधिकांश जातीय विद्वेष से अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने में लगे हैं| सक्षम, सबल, संपन्न देश के सपने देखने वाले ही जातियों को विकास की साझीदार बना पाएंगे, वही तरक्कीपसंद आम लोगों को नए सिरे से देश बनाने में एकजुट कर पाने में कामयाब नहीं| हम ऐसे लोगों की आशा करते हैं जो बेजुबान जानवरों के जीने और मरने को आपसी दुश्मनी की जुमलेबाजी न बनाएं| संभव है कि गाय की बात हो तो कुछ लोग इसे संप्रादियक चश्मे से भी देखना शुरू कर दें लेकिन सच तो यही है कि जो जानवर दूध देने में अपना पराया नहीं देखता उसके जीने मरने को जातीय, धार्मिक और राजनैतिक रंग देना उस बेजुबान के साथ अन्याय नहीं तो और क्या कहा जायेगा? जिन्दा और संवेदनशील लोगों की जरुरत है, आपको हमको ही झंडाबरदारी करनी होगी| लोगों के सामने वजीर नहीं नजीर बनने की जरुरत है| 
गाय हो या आदमी असल जरुरत तो आदमी की आदमी से संवेदना की है, आदमी के आदमी के जानवर और पेड़पौधों के साथ, आदमी की जमीन और नदियों के साथ कुदरती संबंधों को समझने और जीने की है | कानून बदल सकता है कुदरत नहीं| आदमी का बुनियादी स्वाभाव आदमी के साथ ही नहीं जानवरों और पेड़-पौधों के साथ हमदर्दी का होता है| इस हमदर्दी को रवि शुक्ला और अतुल तिवारी ने जीकर दिखाया है| जहाँ अतुल तिवारी और उनके साथियों ने किदवई नगर में बदहाल बीमारी गाय को अपनी हिम्मत भर सहारा देने की कोशिश की वहीँ रवि शुक्ला जानवरों के साथ अत्याचार और क्रूरता के खिलाफ आन्दोलन की तैयारी कर रहे हैं| 
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भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष गोविन्दाचार्य स्वदेशी स्वराज के ध्वजवाहक रहे, राममंदिर आन्दोलन के पहले जब स्वदेशी की पाठशाला और भारतीय मजदूर संघ की राजनीति का जोर था तब गाय उपेक्षित थी| अब गौग्राम फेडरेशन बनाने की कवायद में जुटे गोविन्दचार्ये ने अपना एक मांगपत्र भी सरकार को साझा किया है| वे अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन के तहत वे गौरक्षा कानून की वकालत करते हैं, शायद यहीं पर वे गाय को सरकार के भरोसे छोड़कर निश्चिन्त होते दीखते हैं, या फिर समाज की शक्ति पर उनका भरोसा कमतर होता गया|  हालाँकि दलित चिन्तक गोविन्दाचार्य खुद मानते हैं  सरकार होती ही सभी काम करने के लिए लेकिन भारतीय गणतंत्र हो या दुनिया का कोई देश कानून के पालन में कमियों से दो-चार होता ही है| अगर देश भावनात्मक एकता से चलता है तो भावनात्मक एकता के बीच आई कमियों को ठीक करने की जरुरत है| यदि समाज के आपसी वैमनस्य को दूर नहीं किया जा सके तो न्याय और कानून के देहरी पर विप्र-धेनु-सुर-संत सबका बलिदान होना तय है| ऐसे ही एक वाकये के मार्फत कौशल किशोर का ये आलेख स्मरणीय है, इन्ही कमियों को उजागर करते हुए पचास साल पहले का वाकया कौशल किशोर ने कुछ यूँ बयान किया है|

 

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